अपठित बोध
‘अपठित’ शब्द अंग्रेजी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है।
अपठित गद्यांश
अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है, जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गदयांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु उसका स्तर, विषय वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है।
प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है।
अपठित गद्यांश को बार-बार हल करने से –
- भाषा-ज्ञान बढ़ता है।
- नए-नए शब्दों, मुहावरों तथा वाक्य रचना का ज्ञान होता है।
- शब्द-भंडार में वृद्धि होती है, इससे भाषिक योग्यता बढ़ती है।
- प्रसंगानुसार शब्दों के अनेक अर्थ तथा अलग-अलग प्रयोग से परिचित होते हैं।
- गद्यांश के मूलभाव को समझकर अपने शब्दों में व्यक्त करने की दक्षता बढ़ती है। इससे हमारे अभिव्यक्ति कौशल में वृद्धि होती है।
- भाषिक योग्यता में वृद्धि होती है।
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें –
अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए –
- गद्यांश को एक बार सरसरी दृष्टि से पढ़ लेना चाहिए।
- पहली बार में समझ में न आए अंशों, शब्दों, वाक्यों को गहनतापूर्वक पढ़ना चाहिए।
- गद्यांश का मूलभाव अवश्य समझना चाहिए।
- यदि कुछ शब्दों के अर्थ अब भी समझ में नहीं आते हों, तो उनका अर्थ गद्यांश के प्रसंग में जानने का प्रयास करना चाहिए।
- अनुमानित अर्थ को गद्यांश के अर्थ से मिलाने का प्रयास करना चाहिए।
- गद्यांश में आए व्याकरण की दृष्टि से कुछ महत्त्वपूर्ण शब्दों को रेखांकित कर लेना चाहिए।
- अब प्रश्नों को पढ़कर संभावित उत्तर गद्यांश में खोजने का प्रयास करना चाहिए।
- शीर्षक समूचे गद्यांश का प्रतिनिधित्व करता हुआ कम से कम एवं सटीक शब्दों में होना चाहिए।
- प्रतीकात्मक शब्दों एवं रेखांकित अंशों की व्याख्या करते समय विशेष ध्यान देना चाहिए।
- मूल भाव या संदेश संबंधी प्रश्नों का जवाब पूरे गद्यांश पर आधारित होना चाहिए।
- प्रश्नों का उत्तर देते समय यथासंभव अपनी भाषा का ध्यान रखना चाहिए।
- उत्तर की भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी होनी चाहिए।
- प्रश्नों का जवाब गद्यांश पर ही आधारित होना चाहिए, आपके अपने विचार या राय से नहीं।
- अति लघूत्तरात्मक तथा लघूत्तरात्मक प्रश्नों के उत्तरों की शब्द सीमा अलग-अलग होती है, इसका विशेष ध्यान रखना चाहिए।
- प्रश्नों का जवाब सटीक शब्दों में देना चाहिए, घुमा-फिराकर जवाब देने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
प्रश्नः 1.
गद्यांश का मूल विषय क्या है ?
उत्तरः
गद्यांश का मूल विषय है-अतिथि देव का समय-असमय आना और वर्तमान समय में उनके आने पर मेजबान को होने वाली परेशानियों का वर्णन।
प्रश्नः 2.
लेखक अपने अतिथि के प्रति आभार क्यों प्रकट करता है?
उत्तरः
लेखक अपने अतिथि के प्रति इसलिए आभार व्यक्त करता है, क्योंकि चाहे जिस रूप में अतिथि ने उसे याद तो किया।
प्रश्नः 3.
पहले अतिथियों का आना साल में एक-दो बार ही होता था, क्यों?
उत्तरः
पहले ज़माने में अतिथियों का आना साल में एक-दो बार ही इसलिए हो पाता था, क्योंकि तब यातायात के साधन इतने उन्नत और आसानी से उपलब्ध न थे। तब खाने-पीने की वस्तुओं की कमी न थी और समय पर काम पर पहुँचने की विवशता न थी।
प्रश्नः 4.
शहरों में आतिथ्य सत्कार करने में क्या-क्या कठिनाइयाँ आती हैं ?
उत्तरः
शहरों में आतिथ्य सत्कार करने में अनेक परेशानियाँ आती हैं, जैसे-स्वयं के लिए भोजन की कमी होना, अतिथि के लिए अलग रहने का स्थान न होना। इसके अलावा भागदौड़ भरे जीवन में समय की कमी होना भी प्रमुख परेशानी है।
प्रश्नः 5.
अतिथि हमारे आपके घरों में क्यों आते हैं ? उनका स्वागत कर हम किस परंपरा का निर्वाह करते हैं?
उत्तरः
अतिथि इसलिए आते हैं, क्योंकि वे हमें अपना आत्मीय समझते हैं। उनका स्वागत करके हम भारतीय संस्कृति की पुरानी परंपरा ‘अतिथि देवो भवः’ का निर्वाह करते हैं।
उदाहरण (उत्तर सहित)
यहाँ कुछ अपठित गद्यांशों के उदाहरण दिए जा रहे हैं। छात्र इनका अभ्यास करें।
नीचे दिए गए गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर विकल्पों के आधार पर दीजिए –
1. आगाखाँ महल में खाने-पीने की कोई तकलीफ नहीं थी। हवा की दृष्टि से भी स्थान अच्छा था। महात्मा जी का साथ भी था। किंतु कस्तूरबा के लिए यह विचार ही असह्य हुआ कि ‘मैं कैद में हूँ।’ उन्होंने कई बार कहा-“मुझे यहाँ का वैभव कतई नहीं चाहिए, मुझे तो सेवाग्राम की कुटिया ही पसंद है।” सरकार ने उनके शरीर को कैद रखा किंतु उनकी आत्मा को वह कैद सहन नहीं हुई। जिस प्रकार पिंजड़े का पक्षी प्राणों का त्याग करके बंधनमुक्त हो जाता है उसी प्रकार कस्तूरबा ने सरकार की कैद में अपना शरीर छोड़ा और वह स्वतंत्र हुईं। उनके इस मूक किंतु तेजस्वी बलिदान के कारण अंग्रेजी साम्राज्य की नींव ढीली हुई और हिंदुस्तान पर उनकी हुकूमत कमजोर हुई।
कस्तूरबा ने अपनी कृतिनिष्ठा के द्वारा यह दिखा दिया कि शुद्ध और रोचक साहित्य के पहाड़ों की अपेक्षा कृति का एक कण अधिक मूल्यवान और आबदार होता है। शब्दशास्त्र में जो लोग निपुण होते हैं, उनको कर्तव्य-अकर्तव्य की हमेशा ही विचिकित्सा करनी पड़ती है। कृतिनिष्ठि लोगों को ऐसी दुविधा कभी परेशान नहीं कर पाती। कस्तूरबा के सामने उनका कर्तव्य किसी दीये के समान स्पष्ट था। कभी कोई चर्चा शुरू हो जाती तब ‘मुझसे यही होगा’ और ‘यह नहीं होगा’-इन दो वाक्यों में अपना ही फैसला सुना देतीं।
प्रश्नः 1.
सुविधाओं के बीच भी कैदी होने का विचार किससे नहीं सहा जा रहा था?
उत्तरः
सुविधाओं के बीच भी कैदी होने का विचार कस्तूरबा गांधी से नहीं सहा जा रहा था।
प्रश्नः 2.
वे अपनी स्पष्टवादिता किस तरह प्रकट कर देती थीं?
उत्तरः
वे अपनी स्पष्टवादिता दो वाक्यों ‘मुझसे यही होगा’ और ‘यह नहीं होगा’ द्वारा प्रकट कर देती थीं।
प्रश्नः 3.
आगाखाँ महल में क्या सुविधाएँ थीं, पर इनके बजाय कैदी को क्या पसंद था?
उत्तरः
कस्तूरबा गांधी अंग्रेज़ सरकार की कैद में आत्मा से नहीं सिर्फ तन से कैद थी। उन्होंने जेल में ही अपना शरीर त्याग दिया और आज़ाद हो गई। उनकी मृत्यु से अंग्रेज़ सरकार हिल गई।
प्रश्नः 4.
वह किस तरह अंग्रेजों की कैद से मुक्त हुई ? उनकी मुक्ति का अंग्रेज़ी शासन पर क्या असर पड़ा?
उत्तरः
आगाखाँ महल में रहने की अच्छी व्यवस्था के साथ खाने-पीने की कमी न थी। वहाँ गांधी जी का भी सान्निध्य था, पर कैदी को इन सुविधाओं के बजाय सेवा ग्राम की कुटिया पसंद थी।
प्रश्नः 5.
कृतिनिष्ठ और शब्द शास्त्र में निपुण लोगों में अंतर गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
जो लोग शब्द शास्त्र में पारंगत होते हैं, वे कर्तव्य और अकर्तव्य की दुविधा में फँसे रहते हैं, पर कृतिनिष्ठ लोग इस तरह की दुविधा से बचे रहते हैं, उनका कर्तव्य स्पष्ट रहता है।
2. कैलाश को मृणालिनी की झेंपी हुई सूरत देखकर मालूम हुआ कि इस वक्त उसका इनकार वास्तव में उसे बुरा लगा है। ज्यों ही प्रीतिभोज समाप्त हुआ और गाना शुरू हुआ, उसने मृणालिनी और अन्य मित्रों को साँपों के दरबे के सामने ले जाकर महुअर बजाना शुरू किया। फिर एक-एक खाना खोलकर एक-एक साँप को निकालने लगा। वाह! क्या कमाल था। ऐसा जान पड़ता था कि ये कीड़े उसकी एक-एक बात, उसके मन का एक-एक भाव समझते हैं।
किसी को उठा लिया, किसी को गरदन में डाल लिया, किसी को हाथ में लपेट लिया। मृणालिनी बार-बार मना करती कि इन्हें गरदन में न डालो, दूर ही से दिखा दो। बस जरा नचा दो। कैलाश की गरदन में साँपों को लिपटते देखकर उसकी जान निकली जाती थी। पछता रही थी कि मैंने व्यर्थ ही इनसे साँप दिखाने को कहा मगर कैलाश एक न सुनता था। प्रेमिका के सम्मुख अपने सर्प-कला-प्रदर्शन को ऐसा अवसर पाकर वह कब चूकता! एक मित्र ने टीका की – “दाँत-तोड़ डाले होंगे।”
प्रश्नः 1.
मृणालिनी के उदास होने का कारण क्या था?
उत्तरः
मृणालिनी के उदास होने का कारण था-कैलाश द्वारा साँपों को दिखाने से इनकार करना।
प्रश्नः 2.
कैलाश ने मृणालिनी की उदासी दूर करने का प्रयास कब किया?
उत्तरः
कैलाश ने मृणालिनी प्रीतिभोज समाप्त होने के बाद गाना शुरू होते ही मृणालिनी की उदासी दूर करने का प्रयास किया।
प्रश्नः 3.
हर साँप कैलाश की बात मानता है। यह कैसे पता चलता है ?
उत्तरः
कैलाश ने साँपों के दरबे के आगे महुअर बजाकर साँपों को निकाला, फिर किसी एक साँप को हाथ में लपेट लिया तो किसी को गले में डाल लिया और साँप बिना विरोध उसकी बात मानते जा रहे थे।
प्रश्नः 4.
मृणालिनी को अब किस बात का पछतावा हो रहा था और क्यों?
उत्तरः
मृणालिनी के कहने पर ही कैलाश साँपों को दिखाते-दिखाते अपने गले में डालने लगा था। यह देख उसे साँप दिखाने के लिए कहने पर पछतावा हो रहा था। इससे कैलाश के प्राण संकट में भी पड़ सकते थे।
प्रश्नः 5.
कैलाश किस अवसर को नहीं चूकना चाहता था और क्यों?
उत्तरः
मृणालिनी कैलाश को प्रेमिका थी। वह उसके सामने साँपों के प्रदर्शन का अवसर नहीं चूकना चाहता था। ऐसा करके वह मृणालिनी को प्रभावित एवं खुश करना चाहता था।
3. विद्यार्थी जीवन को मानव जीवन की रीढ़ की हड्डी कहें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। विद्यार्थी काल में बालक में जो संस्कार पड़ जाते हैं, जीवन भर वही संस्कार अमिट रहते हैं। इसीलिए यही काल आधारशिला कहा गया है। यदि यह नींव दृढ़ बन जाती है तो जीवन सुदृढ़ और सुखी बन जाता है। यदि इस काल में बालक कष्ट सहन कर लेता है तो उसका स्वास्थ्य सुंदर बनता है। यदि मन लगाकर अध्ययन कर लेता है तो उसे ज्ञान मिलता है, उसका मानसिक विकास होता है। जिस वृक्ष को प्रारंभ से सुंदर सिंचन और खाद मिल जाती है, वह पुष्पित एवं पल्लवित होकर संसार को सौरभ देने लगता है। इसी प्रकार विद्यार्थी काल में जो बालक श्रम, अनुशासन, समय एवं नियमन के साँचे में ढल जाता है, वह आदर्श विद्यार्थी बनकर सभ्य नागरिक बन जाता है। सभ्य नागरिक के लिए जिन-जिन गुणों की आवश्यकता है, उन गुणों के लिए विद्यार्थी काल ही तो सुंदर पाठशाला है। यहाँ पर अपने साथियों के बीच रहकर वे सभी गुण आ जाने आवश्यक हैं, जिनकी कि विद्यार्थी को अपने जीवन में आवश्यकता होती है।
प्रश्नः 1.
जीवन की आधारशिला किस काल को कहा जाता है?
उत्तरः
जीवन की आधारशिला विद्यार्थी जीवन को कहा गया है।
प्रश्नः 2.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-जीवन का निर्माण काल विद्यार्थी जीवन।
प्रश्नः 3.
मानव जीवन के लिए विद्यार्थी जीवन की महत्ता स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
मानव जीवन के लिए विद्यार्थी जीवन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस काल में अच्छे गुणों एवं संस्कारों की दृढ़ नींव पड़ जाती है, तो जीवन सुखमय बन जाता है। इस काल में सीखी बातें जीवन भर साथ रहती हैं।
प्रश्नः 4.
छोटे वृक्ष के पोषण का उल्लेख किस संदर्भ में किया गया है और क्यों?
उत्तरः
छोटे वृक्ष के पोषण का उल्लेख विद्यार्थी जीवन के संदर्भ में किया गया है, क्योंकि जिस प्रकार अच्छा पोषण पाकर पौधा वृक्ष बनकर फल-फूल देता है, उसी प्रकार विद्यार्थी जीवन में पड़े अच्छे संस्कार उसे अच्छा इनसान बनाते हैं।
प्रश्नः 5.
विद्यार्थी जीवन की तुलना पाठशाला से क्यों की गई है?
उत्तरः
विदयार्थी जीवन की तुलना पाठशाला से इसलिए की गई है, क्योंकि जिस प्रकार छात्र ज्ञान प्राप्त करता है उसी प्रकार विद्यार्थी जीवन में बालक जीवनोपयोगी गुण ग्रहण करता है।
4. हमारे देश के त्योहार चाहे धार्मिक दृष्टि से मनाए जा रहे हैं, या नए वर्ष के आगमन के रूप में; फसल की कटाई एवं खलिहानों के भरने की खुशी में हो या महापुरुषों की याद में; सभी अपनी विशेषताओं एवं क्षेत्रीय प्रभाव से युक्त होने के साथ ही देश की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता और अखंडता को मज़बूती प्रदान करते हैं। ये त्योहार जहाँ जनमानस में उल्लास, उमंग एवं खुशहाली भर देते हैं, वहीं हमारे अंदर देश-भक्ति एवं गौरव की भावना के साथ-साथ, विश्व-बंधुत्व एवं समन्वय की भावना भी बढ़ाते हैं। इनके द्वारा महापुरुषों के उपदेश हमें बार-बार इस बात की याद दिलाते हैं कि सद्विचार एवं सद्भावना द्वारा ही हम प्रगति की ओर बढ़ सकते हैं। इन त्योहारों के माध्यम से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि वास्तव में धर्मों का मूल लक्ष्य एक है, केवल उस लक्ष्य तक पहुँचने के तरीके अलग-अलग हैं।
प्रश्न
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-त्योहार और मानवजीवन।
प्रश्नः 2.
त्योहारों से मनुष्य को क्या शिक्षा मिलती है ?
उत्तरः
त्योहारों से मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि सभी धर्मों का लक्ष्य एक है, जहाँ पहुँचने के तरीके अलग-अलग हैं।
प्रश्नः 3.
हमारे देश में त्योहार मनाने के मुख्य आधार क्या हैं ?
उत्तरः
हमारे देश में त्योहार मनाने के अनेक आधार हैं। ये त्योहार कभी धार्मिक दृष्टि से मनाए जाते हैं, तो कभी नववर्ष के आगमन की खुशी में या फ़सल करने और खलिहान भरने की खुशी इनके मनाने का आधार हो सकता है।
प्रश्नः 4.
त्योहारों का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है ?
उत्तरः
त्योहार हमारे जीवन को उमंग एवं खुशहाली से भर देते हैं तथा हमारे मन में एकता, अखंडता, विश्व-बंधुत्व, देश भक्ति एवं आपसी समन्वय की भावना भी बढ़ाते हैं।
प्रश्नः 5.
त्योहारों और महापुरुषों के उपदेश में समानता गद्यांश के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
त्योहारों और महापुरुषों के उपदेशों में समानता यह है कि, ये दोनों ही हमें यह याद दिलाते हैं कि अच्छे विचार और अच्छी भावना रखने से ही हम प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं।
5. वास्तव में हृदय वही है, जो कोमल भावों और स्वदेश प्रेम से ओतप्रोत हो। प्रत्येक देशवासी को अपने वतन से प्रेम होता है, चाहे उसका देश सूखा, गर्म या दलदलों से युक्त हो। देश-प्रेम के लिए किसी आकर्षण की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि वह तो अपनी भूमि के प्रति मनुष्य मात्र की स्वाभाविक ममता है। मानव ही नहीं पशु-पक्षियों तक को अपना देश प्यारा होता है। संध्या समय पक्षी अपने नीड़ की ओर उड़े चले जाते हैं। देश-प्रेम का अंकुर सभी में विद्यमान है। कुछ लोग समझते हैं कि मातृभूमि के नारे लगाने से ही देश-प्रेम व्यक्त होता है। दिन-भर वे त्याग, बलिदान और वीरता की कथा सुनाते नहीं थकते, लेकिन परीक्षा की घड़ी आने पर भाग खड़े होते हैं। ऐसे लोग स्वार्थ त्यागकर जान जोखिम में डालकर देश की सेवा क्या करेंगे? आज ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं है।
प्रश्नः 1.
देश-प्रेम का अंकुर कहाँ विद्यमान रहता है ?
उत्तरः
देश-प्रेम का अंकुर हर प्राणी में विद्यमान रहता है।
प्रश्नः 2.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-सच्चा देश-प्रेम।
प्रश्नः 3.
देश-प्रेम और मानव हृदय का संबंध स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
देश-प्रेम और मानव-हृदय में अत्यंत घनिष्ठ संबंध है। कोमल भावों और देश-प्रेम से युक्त हृदय श्रेष्ठ होता है। अपनी भूमि के प्रति यह स्वाभाविक ममता हर हृदय में होती है।
प्रश्नः 4.
पक्षी अपने देश के प्रति अपना लगाव कैसे प्रकट करते हैं?
उत्तरः
पक्षी भी अपने देश के प्रति असीम लगाव रखते हैं। इसी लगाव के कारण, पक्षी दिन भर कहीं भी उड़े, दाना चुगें पर शाम के समय अपने घोंसले की ओर अवश्य लौट आते हैं।
प्रश्नः 5.
गद्यांश के आधार पर सच्चे देश-प्रेमी की पहचान बताइए।
उत्तरः
सच्चे देश-प्रेमी मातृभूमि के प्रति कोरे नारे लगाकर अपनी देशभक्ति प्रकट नहीं करते हैं। वे दूसरों को अपने त्याग और बलिदान की कहानियाँ नहीं सुनाते हैं, लेकिन आवश्यकता के समय मातृभूमि के लिए प्राणों की बाजी लगा देते हैं।
6. मानव जाति अपने उद्भवकाल से ही प्रकृति की गोद में और उसी से अपने भरण-पोषण की सामग्री प्राप्त की। सभी प्रकार के वन्य या प्राकृतिक उपादान ही उसके जीवन और जीविका के एकमात्र साधन थे। प्रकृति ने ही मानव जीवन को संरक्षण प्रदान किया। रामचंद्र, सीता व लक्ष्मण सभी ने पंचवटी नामक स्थान पर कुटिया बनाकर वनवास का लंबा समय व्यतीत किया था।
वृक्षों की लकड़ी से मानव अनेक प्रकार के लाभ उठाता है। उसने लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयुक्त किया। इससे मकान व झोंपड़ियाँ बनाईं। इमारती लकड़ी से भवन-निर्माण, कृषि यंत्र, परिवहन, जैसे-रथ, ट्रक तथा रेलों के डिब्बे तथा फर्नीचर आदि बनाए जाते हैं। कोयला भी लकड़ी का प्रतिरूप है। वृक्षों की लकड़ी तथा उसके उत्पाद; जैसे-नारियल का जूट, लकड़ी का बुरादा, चीड़ की लकड़ी आदि का प्रयोग फल, काँच के बरतन आदि नाजुक पदार्थों की पैकिंग में किया जाता है।
प्रश्नः 1.
लकड़ी और कोयले में क्या संबंध है?
उत्तरः
लकड़ी और कोयले में यह संबंध है कि कोयला लकड़ी का ही बदला हुआ रूप है।
प्रश्नः 2.
‘भरण-पोषण’ और ‘भवन-निर्माण’ का विग्रह करके समास का नाम बताइए।
उत्तरः
भरण-पोषण = भरण और पोषण – द्वंद्व समास
भवन निर्माण = भवन और निर्माण – संबंध तत्पुरुष समास
प्रश्नः 3.
आदिमानव के लिए वन किस तरह लाभदायी रहे हैं?
उत्तरः
आदिमानव ने वनों की गोद में जन्म लिया, वहीं पला-बढ़ा और अपने लिए भोजन प्राप्त किया। वन और उसके उत्पाद ही आदिमानव के जीने का सहारा थे। वनों ने ही आदिमानव को संरक्षण दिया।
प्रश्नः 4.
वर्तमान में मनुष्य वृक्षों से किस तरह लाभ उठा रहा है?
उत्तरः
वर्तमान में मनुष्य वनों से प्राप्त लकड़ी को ईंधन के रूप में प्रयोग कर रहा है। इनसे वह मकान बनाने, कृषि यंत्र, रथ, ट्रक तथा रेल के डिब्बे तथा अन्य बहुत-सी वस्तुएँ बना रहा है।
प्रश्नः 5.
लकड़ी के अलावा वृक्षों के उत्पाद क्या हैं? मनुष्य इनका उपयोग किन कार्यों में कर रहा है?
उत्तरः
लकड़ी के अलावा वृक्षों के अन्य उत्पाद हैं-नारियल का जूट, लकड़ी का बुरादा, चीड़ की लकड़ी आदि। इनका प्रयोग वह कल, काँच के बरतन आदि नाजुक सामानों की पैकिंग जैसे कामों में कर रहा है।
7. वहाँ वह सूर्य है जो चमकता है। तो सूर्य आखिर है क्या? वेदों में इसे एक पहिएवाले सुनहरे रथ पर सवार देवता कहा गया है, जिसे सात शक्तिशाली घोड़े पलक झपकते ही 364 लीग की रफ़्तार से दौड़ा कर ले जाते हैं। वह अपने रथ पर सवार होकर आसमान में घूमता रहता है और संसार की हर गतिविधि पर नज़र रखता है। किसने इसे बनाया, जिस पर धरती पर मौजूद जीवन पूरी तरह से निर्भर है? क्या यह मरता हुआ विशाल तारा है या कोई वैज्ञानिक चमत्कार या वाकई सूर्य देवता हैं जो वेदों की साकार आत्मा हैं और जो त्रिदेव का प्रतिनिधित्व करता है-दिन में ब्रह्मा, दोपहर में शिव और शाम में विष्णु।
भारतीय पौराणिक गाथाओं के अनुसार, सूर्य के माता-पिता थे-अदिति और कश्यप। अदिति के आठ बच्चे थे। आठवाँ बच्चा अंडे की शक्ल का था। इसलिए उसका नाम रखा मार्तंड यानी मृत अंडे का पुत्र और उसका परित्याग कर दिया। वह आसमान में चला गया और खुद को वहाँ महिमामंडित कर लिया। दूसरा किस्सा यह है कि, अदिति ने एक बार अपने पहले सात पुत्रों से कहा कि वे ब्रह्मांड का सृजन करें। किंतु वे इसमें असमर्थ रहे। क्योंकि वे सिर्फ जन्म को जानते थे, मृत्यु को नहीं। जीवन चक्र स्थापित करने के लिए अमरत्व की ज़रूरत नहीं थी, सो अदिति ने मार्तंड से कहा। उन्होंने फ़ौरन दिन और रात का सृजन कर दिया, जो जीवन और मृत्यु के प्रतीक थे।
प्रश्नः 1.
मार्तंड द्वारा दिन और रात के सृजन का क्या उद्देश्य था?
उत्तरः
मार्तंड द्वारा दिन और रात के सृजन का उद्देश्य था—जीवन और मृत्यु का सृजन कर जीवन चक्र स्थापित करना।
प्रश्नः 2.
‘पौराणिक’ ‘अमरत्व’ में प्रयुक्त प्रत्यय और मूल शब्द बताइए।
उत्तरः
प्रश्नः 3.
वेदों में सूर्य का वर्णन किस तरह किया गया है?
उत्तरः
वेदों में सूर्य को एक पहिएवाले रथ पर सवार देवता बताया गया है। इस रथ को सात घोड़े द्रुत गति से खींचते हैं। इस पर सवार होकर सूर्य आसमान का चक्कर लगाता हुआ संसार की हर गतिविधि देखता है।
प्रश्नः 4.
भारतीय पौराणिक गाथाओं के अनुसार सूर्य क्या है?
उत्तरः
पौराणिक गाथाओं के अनुसार, सूर्य अपने माता-पिता अदिति और कश्यप की आठवीं संतान है। अंडे की शक्ल होने के कारण उसका नाम मार्तंड रखा। माता-पिता द्वारा त्यागे जाने पर वह आसमान चला गया।
प्रश्नः 5.
सूर्य के संबंध में प्रचलित किस्से के आधार पर सूर्य के महिमामंडन का कारण क्या है ?
उत्तरः
सूर्य के महिमामंडन का कारण यह है कि अदिति के कहने पर सूर्य के सातों पुत्र ब्रहमांड का सृजन करने में असफल रहे, पर सूर्य ने दिन-रात का सृजन कर जीवन चक्र स्थापित कर दिया और महिमा मंडित हो गया।
8. सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में ऊँची पर्वतमाला है, उसी पर बिल्कुल शिखर पर कौसानी बसा हुआ है। कौसानी से दूसरी ओर फिर ढाल शुरू हो जाती है। कौसानी के अड्डे पर जाकर बस रुकी। छोटा-सा, बिल्कुल उजड़ा-सा गाँव और बर्फ का तो कहीं नाम-निशान नहीं। बिल्कुल ठगे गये हम लोग। कितना खिन्न था मैं। अनखाते हुए बस से उतरा कि जहाँ था वहीं पत्थर की मूर्ति-सा स्तब्ध खड़ा रह गया। कितना अपार सौंदर्य बिखरा था, सामने की घाटी में। इस कौसानी की पर्वतमाला ने अपने अंचल में यह जो कत्यूर की रंग-बिरंगी घाटी छिपा रखी है। इसमें किन्नर और यक्ष ही तो वास करते होंगे।
पचासों मील चौड़ी यह घाटी, हरे मखमली कालीनों जैसे खेत, सुंदर गेरू की शिलाएँ काटकर बने हए लाल-लाल रास्ते, जिनके किनारे-किनारे सफेद-सफेद पत्थरों की कतार और इधर-उधर से आकर आपस में उलझ जानेवाली बेलों की लडियों-सी नदियाँ। मन में तो बस यही आया कि इन बेलों की लड़ियों को उठाकर कलाई में लपेट लँ, आँखों से लगा लूँ। अकस्मात् हम एक-दूसरे लोक में चले आए थे। इतना सुकुमार, इतना सुंदर, इतना सजा हुआ और इतना निष्कलंक कि लगा इस धरती पर तो जूते उतारकर, पाँव पोंछकर आगे बढ़ना चाहिए। धीरे-धीरे मेरी निगाहों ने इस घाटी को पार किया और जहाँ ये हरे खेत और नदियाँ और वन, क्षितिज के धुंधलेपन में, नीले कोहरे में धुल जाते थे, वहाँ पर कुछ छोटे पर्वतों का आभास, अनुभव किया, उसके बाद बादल थे और फिर कुछ नहीं।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-कौसानी का अद्भुत सौंदर्य ।
प्रश्नः 2.
लेखक को पहाड़ी नदियाँ किसके समान दिख रही थी?
उत्तरः
लेखक को पहाड़ी नदियाँ आपस में उलझ जाने वाली बेलों जैसी दिख रही थीं।
प्रश्नः 3.
लेखक को ऐसा क्यों लगा कि वह ठगा जा चुका है ?
उत्तरः
लेखक अपने साथियों के साथ कौसानी में बरफ़ देखने की इच्छा लेकर गया था, पर बस अड्डे पर पहुँचकर उसने छोटे से उजड़े गाँव में पाया, जहाँ बरफ़ का नाम भी न था। उसे ऐसा लगा कि व ठगा जा चुका है।
प्रश्नः 4.
कौंसानी की पर्वतमाला की सुंदरता का रहस्य क्या है ?
उत्तरः
कौसानी पर्वतमाला की सुंदरता का रहस्य है-उसके अंचल में छिपी कत्युर की रंग-बिरंगी घाटी, जो पचासों मील चौड़ी हरे मखमली कालीन जैसी है। यहाँ गेरु की शिलाओं के काटने से बने लाल रास्ते मोह लेते हैं।
प्रश्नः 5.
कौसानी का सौंदर्य लेखक को कैसा लगा? इसे देखकर लेखक के मन में क्या विचार आया?
उत्तरः
लेखक को कौसानी का सौंदर्य अत्यंत सुकुमार, सजीला, और निष्कलंक लगा। ऐसे सौंदर्य वाली धरती को देख उसका मन कर रहा था कि वह जूते उतारकर पैरों को पोंछकर आगे बढ़े।
9. गुरु नानकदेव का आविर्भाव आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ। भारतवर्ष की मिट्टी में युग के अनुरूप महापुरुषों को जन्म देने का अद्भुत गुण है। आज से पाँच सौ वर्ष पहले का देश उनके कुसंस्कारों में उलझा था। जातियों, संप्रदायों, धर्मों और संकीर्ण कुलाभिमानों से वह खंड-विच्छिन्न हो गया था। देश में नये धर्म के आगंतुकों के कारण एक ऐसी समस्या उठ खड़ी हुई थी, जो इस देश के हजारों वर्षों के लंबे इतिहास में अपरिचित थी।
ऐसे ही दुर्घट काल में इस देश की मिट्टी ने ऐसे अनेक महापुरुषों को उत्पन्न किया, जो सड़ी रूढ़ियों, मृतप्राय आचारों, बासी विचारों और अर्थहीन संकीर्णताओं के विरुद्ध प्रहार करने में कुंठित नहीं हुए और इन जर्जर बातों से परे सबमें विद्यमान सबको नई ज्योति और नया जीवन प्रदान करनेवाले महान् जीवन-देवता की महिमा प्रतिष्ठित करने में समर्थ हुए। इन संतों की ज्योतिष मंडली में गुरु नानकदेव ऐसे संत हैं, जो शरत्काल के पूर्णचंद्र की तरह ही स्निग्ध, उसी प्रकार शांत-निर्मल, उसी प्रकार रश्मि के भंडार थे। कई संतों ने कस-कस के चोटें मारी; व्यंग्य-बाण छोड़े, तर्क की छुरी चलायी, पर महान् गुरु नानकदेव ने सुधा-लेप का काम किया।
यह आश्चर्य की बात है कि विचार और आचार की दुनिया में इतनी बड़ी क्रांति ले आनेवाला यह संत इतने मधुर, इतने स्निग्ध, इतने मोहक वचनों का बोलनेवाला है। किसी का दिल दुखाये बिना, किसी पर आघात किए बिना, कुसंस्कारों को छिन्न करने की शक्ति रखनेवाला, नई संजीवनी धारा से प्राणिमात्र को उल्लसित करनेवाला यह संत मध्यकाल की ज्योतिष्क मंडली में अपनी निराली शोभा से शरत् पूर्णिमा के पूर्णचंद्र की तरह ज्योतिष्मान् है।
प्रश्नः 1.
गुरु नानकदेव का संबंध किस काल से है?
उत्तरः
गुरु नानकदेव का संबंध मध्यकाल से है।
प्रश्नः 2.
उल्लसित, कुलाभिमान-संधि विच्छेद कीजिए।
उत्तरः
उल्लसित = उत् + लसित
कुलाभिमान = कुल + अभिमान
प्रश्नः 3.
दुर्घटकाल किस समय को कहा गया है और क्यों?
उत्तरः
आज से करीब पाँच सौ साल पहले के काल को दुर्घटकाल कहा गया है, क्योंकि उस समय देश कुसंस्कारों में उलझकर जाति, धर्म, संप्रदाय आदि के नाम पर लड़ रहा था। उस समय नए धर्मांगतुकों का आगमन समस्या बन रहा था।
प्रश्नः 4.
समाज को सुधारने में संतों का क्या योगदान रहा है?
उत्तरः
संतों ने समाज में फैली रूढ़ियों, मृतप्राय आचार-विचारों और संकीर्णताओं पर प्रहार किया और सबमें विद्यमान और सबको नया जीवन देने वाले जीवन-देवता की महिमा प्रतिष्ठित करके समाज का कल्याण किया।
प्रश्नः 5.
नानकदेव अन्य संतों से किस तरह भिन्न थे?
उत्तरः
अन्य संतों ने लोगों के बुराइयों से बचाने के लिए चोटें मारी, व्यंग्यवाण छोड़े, तर्क के कटु वचन कहे, वहीं गुरुनानक देव ने मधुर, स्निग्ध मोहक वचनों में बिना किसी का दिल दुखाए नई संजीवनीधारा लोगों को प्रदान की।
10. अनुशासन का अर्थ है- नियम-विधियों का पालन करना। इसका सर्वोत्तम रूप है आत्मानुशासन। जिसके तहत स्व को मर्यादा व संयम के दायरे में रखा जाता है। अनुशासित व्यक्ति अपने आचरण से मूल्यों को व्यवहार में ढालकर आदर्श प्रस्तुत करता है। वह आत्म नियंत्रण से विवेकपूर्ण निर्णय लेता है कि कौन-सा कृत्य करने लायक है और कौन-सा त्याज्य। अनुशासन एक प्रकार का भाव है जो लोकमंगल की ओर प्रवृत्त रहता है। समाज, शासन, लोक तथा सदाचार आदि के नियमों का अनुपालन करना अनुशासन का अंग है। अनुशासन नैतिकता से परे नहीं है।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक है-अनुशासन का महत्त्व।
प्रश्नः 2.
‘सर्वोत्तम’ आत्मानुशासन में संधि विच्छेद कीजिए।
उत्तरः
सर्वोत्तम = सर्व + उत्तम
आत्मानुशासन = आत्म + अनुशासन
प्रश्नः 3.
अनुशासन क्या है? इसका सबसे अच्छा रूप क्या है ?
उत्तरः
समाज द्वारा बनाए गए नियमों और विधियों का पालन करना अनुशासन है। किसी व्यक्ति द्वारा स्वयं को अपने आप ही मर्यादित एवं संयमित दायरे में रखना इसका सबसे अच्छा रूप है।
प्रश्नः 4.
अनुशासित व्यक्ति की दो विशेषताएँ लिखिए।
उत्तरः
- अनुशासित व्यक्ति विवेकपूर्ण निर्णय लेता है।
- अनुशासित व्यक्ति अपने व्यवहार में मूल्यों को ढालकर आदर्श प्रस्तुत करता है।
प्रश्नः 5.
अनुशासन और नैतिकता एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
समाज, शासन लोक और सदाचार आदि के नियमों का भली प्रकार पालन करना ही अनुशासन है। इन्हीं नियमों का पालन करना ही नैतिकता है। अतः अनुशासन और नैतिकता एक-दूसरे से अलग नहीं हैं।
11. भारत के वे असली सपूत थे, इसका सबूत उन्होंने पदारूढ़ होने के एक दिन पहले तब दिया जब वे दिल्ली में शृंगेरी के जगद्गुरु स्वामी शंकराचार्य से भेंट करने गए। जगद्गुरु के सामने पुष्प और फल रखते हुए उन्होंने कहा था- आपका आशीर्वाद चाहिए और शंकराचार्य ने राष्ट्रपति के सिर पर हाथ रख कर उन्हें आशीर्वाद दिया था। ऐसी ही एक और घटना याद आती है। उपराष्ट्रपति-निवास के अहाते में एक दिन सवेरे घूम रहे थे तो देखा कि माली के घर में कीर्तन हो रहा है। फिर क्या था, टहलते हुए उधर चले गए और उसके साथ एक कोने में दरी पर बैठ गए।
जब कुरसी लाने के लिए कहा गया तो बोले, “भगवान के घर में सब बराबर होते हैं।”-और दरी पर ही बैठे रहे। पटियाला में पंजाबी विश्वविद्यालय में गुरु गोबिंद सिंह के संस्थान की नींव रखने को आपसे कहा गया तो बोले, “आपने मुझसे इस पवित्र संस्थान की नींव रखने को कहा है। इससे मुझे याद आता है कि अमृतसर से दरबार साहब की नींव डालने के लिए भी एक मुसलमान को ही बुलाया गया था,” और यह कहते-कहते उनका गला भर आया, आँखों से आँसू बहने लगे। बड़े-बड़े योद्धा सिख सरदार श्रोताओं की भी उस समय आँखें भर आईं।
प्रश्नः 1.
‘जगद्गुरु’ ‘आशीर्वाद’-संधि-विच्छेद कीजिए।
उत्तरः
जगद्गुरु = जगत + गुरु
आशीर्वाद = आशीः + वाद
प्रश्नः 2.
गद्यांश का मूलभाव क्या है?
उत्तरः
गद्यांश का मूलभाव है-डॉ० जाकिर हुसैन की धार्मिक उदारता।
प्रश्नः 3.
पदारूढ़ होने से पहले डॉ० ज़ाकिर हुसैन कहाँ गए और क्यों?
उत्तरः
पदारूढ़ होने से पहले डॉ० जाकिर हुसैन दिल्ली में शृंगेरी के जगद्-गुरु शंकराचार्य के पास गए। वे उपराष्ट्रपति जैसा महत्वपूर्ण पद संभालने से पहले उनका आशीर्वाद लेना चाहते थे।
प्रश्नः 4.
डॉ० जाकिर हुसैन ने अपने धार्मिक उदारता का परिचय माली के घर कैसे दिया?
उत्तरः
माली के यहाँ कीर्तन होने की बात सुनकर जाकिर हुसैन वहाँ गए और सबके साथ दरी पर बैठे। उन्होंने कुरसी पर बैठने से यह कहकर इनकार कर दिया कि भगवान के घर में सभी बराबर होते हैं। यह उनकी धार्मिक उदारता थी।
प्रश्नः 5.
पंजाबी विश्वविद्यालय की नींव रखने के समय डॉ० ज़ाकिर हुसैन भावुक क्यों हो गए?
उत्तरः
पंजाबी विश्वविद्यालय की नींव रखने के समय डॉ. जाकिर हुसैन इसलिए भावुक हो गए थे क्योंकि एक मुसलमान होने के बाद भी उन्हें संस्थान की नींव रखने का पुनीत काम करने का अवसर दिया गया था।
12. उपवास रखना केवल धार्मिक विधि-विधान या कर्मकांड का ही अंग नहीं है। उपवास-व्रत भारतीय संस्कृति के पूर्ण स्वास्थ्य के सूत्र हैं। ऋतु-परिवर्तन के समय व्रत इसलिए रखे जाते हैं कि बदलते मौसम में कई किस्म की बीमारियाँ आती हैं। बीमारियों से लड़ने की रोग-प्रतिरोधक शक्ति तभी प्राप्त होगी, जब शारीरिक और मानसिक शुद्धता होगी। इसी से जीवनी-शक्ति भी प्राप्त होती है, जिससे बल व बुद्धि का बराबर संतुलन बना रहता है।
उपवास के दौरान शरीर के पाचन-संस्थान को पूर्ण रूप से विश्राम मिलता है तथा शरीर में विद्यमान पुराने खाद्य अवशेष और दूषित पदार्थ नष्ट होकर मल के द्वारा बाहर निकल जाते हैं। गलत खाद्य पदार्थ ही विजातीय द्रव्य यानी विष का काम करते हैं। इस विष को जब शरीर रोग द्वारा निकालने का प्रयत्न करता है तो भूख स्वतः समाप्त हो जाती है। अतः उस समय उपवास करना अनिवार्य हो जाता है। भोजन लेने से तीव्र निष्कासन क्रिया रुक जाती है। भूख न रहने पर भोजन न किया जाए तो पूर्ण रूप से शारीरिक सफ़ाई होकर रोग का कारण जड़ से समाप्त हो जाता है। उसके पश्चात् नियमित तथा उपयुक्त आहार देने पर रोग के लौटने की आशंका नहीं रहती।
प्रश्नः 1.
भारतीय संस्कृति में पूर्ण स्वास्थ्य का सूत्र किसे माना गया है?
उत्तरः
भारतीय संस्कृति में पूर्ण स्वास्थ्य का सूत्र उपवास और व्रत को कहा गया है।
प्रश्नः 2.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-व्रत-उपवास का महत्त्व।
प्रश्नः 3.
भारतीय संस्कृति में ऋतु परिवर्तन के समय व्रत रखने का विधान क्यों है?
उत्तरः
भारतीय संस्कृति में ऋतु-परिवर्तन के समय व्रत-उपवास रखने का विधान इसलिए है, क्योंकि व्रत और उपवास शारीरिक और मानसिक शुद्धता प्रदान करते हैं जो बदले मौसम की बीमारियों से लड़ने में मदद करते हैं।
प्रश्नः 4.
व्रत-उपवास शरीर के लिए किस तरह लाभदायी हैं ?
उत्तरः
व्रत-उपवास के दौरान शरीर के पाचन संस्थान को आराम मिलता है। इससे पुराने खाद्य अवशेष और दूषित पदार्थ नष्ट होकर मल द्वारा निकल जाते हैं। इससे शरीर स्वस्थ बनता है।
प्रश्नः 5.
व्रत-उपवास रखना कब अनिवार्य हो जाता है, और क्यों?
उत्तरः
हमारा शरीर जब रोग के माध्यम से विषैले पदार्थ को बाहर निकालता है, तब हमारी भूख समाप्त हो जाती है। ऐसे में व्रत-उपवास रखना अनिवार्य हो जाता है। इससे शरीर की पूर्ण सफ़ाई हो जाती है और रोग दुबारा नहीं लौटता है।
13. प्रायः लोग कहा करते हैं कि काव्य का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है, कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है। मनोरंजन करना कविता का वह प्रधान गुण है जिससे वह मनुष्य के चित्त को अपना प्रभाव ज़माने के लिए वश में किए रहती है, उसे इधर-उधर नहीं जाने देती। यही कारण है कि नीति और धर्म संबंधी उपदेश चित्त पर वैसा असर नहीं करती जैसा की काव्य और उपन्यास से निकली हुई शिक्षा असर करती है, केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’, ‘सदैव सत्य बोलो’, ‘चोरी करना महापाप है, हम यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि कोई अपकारी मनुष्य परोपकारी हो जायेगा, झूठा सच्चा हो जायेगा, चोर चोरी करना छोड़ देगा।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-काव्य का महत्त्व।
प्रश्नः 2.
मनोरंजन, सदैव-संधि विच्छेद कीजिए।
उत्तरः
मनोरंजन = मनः + रंजन
सदैव = सदा + एव
प्रश्नः 3.
काव्य का प्रमुख उद्देश्य क्या है ? यह मानव मस्तिष्क पर क्या असर डालती है?
उत्तरः
काव्य का मुख्य उद्देश्य है लोगों का मनोरंजन करना। काव्य मानव मस्तिष्क को अपना प्रभाव जमाने के लिए वश में किए रहता है और उसे इधर-उधर नहीं जाने देता है।
प्रश्नः 4.
चित्त पर कौन-से उपदेश बेअसर साबित होते हैं और क्यों?
उत्तरः
वित्त पर नीति और धर्म संबंधी उपदेश बेअसर साबित होते हैं, क्योंकि इन उपदेशों में मानव मस्तिष्क को अपने प्रभाव में लेकर उसे इधर-उधर जाने से रोकने की ताकत नहीं होती है।
प्रश्नः 5.
नीति और धर्म संबंधी कुछ उपदेश लिखिए। ये उपदेश किन पर प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं ?
उत्तरः
परोपकार करो’, ‘सदैव सत्य बोलो’, ‘चोरी करना महापाप है’ आदि कुछ नैतिक और धार्मिक उपदेश हैं। ये उपदेश अपकारी लोगों पर अपना असर नहीं छोड़ पाते हैं।
14. सुभद्रा जी के व्यक्तित्व पर रोशनी डालते हुए महादेवी जी लिखती हैं कि अपने निश्चित लक्ष्य पथ पर अडिग रहना और सब कुछ हँसते-हँसते सहना उनका स्वाभावगत गुण था। आर्थिक कठिनाइयों के बावजूद उनके चरित्र का यह पक्ष उन्हें और महान बना देता है। लेकिन राजनीतिक जागरूकता ही उनके व्यक्तित्व में नहीं थी, सामाजिक जागरूकता भी उतनी ही अधिक थी। कविता लिखकर जिस विद्रोही स्वभाव का परिचय उन्होंने बचपन में दिया था, वह जीवन पर्यंत रहा। अपने बच्चों पर किसी तरह का अंकुश लगाने की बजाए उन्होंने उन्हें स्वाभाविक रूप से आगे बढ़ने का अवसर दिया।
इसी तरह अपनी बेटी का अंतरजातीय विवाह कर उन्होंने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने में जो साहस का परिचय दिया, वह इस बात से और भी मुख्य रूप में सामने आता है कि उन्होंने यह कहते हुए कन्यादान की प्रथा का विरोध किया कि स्त्री कोई निर्जीव वस्तु नहीं है जिसका कि दान किया जा सके। अपने पारिवारिक जीवन में ही नहीं सामाजिक-राजनीतिक जीवन में भी उन्होंने अपने प्रगतिशील साहसपूर्ण व्यक्तित्व का परिचय बराबर दिया। महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद इलाहाबाद में अस्थिविसर्जन के अवसर पर हरिजन महिलाओं के अधिकारों के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया, वह इसी बात का प्रमाण है।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-सुभद्रा कुमारी चौहान-एक अद्भुत व्यक्तित्व ।
प्रश्नः 2.
‘आर्थिक’, ‘विद्रोही’-उपसर्ग/प्रत्यय एवं मूल शब्द ज्ञात कीजिए।
उत्तरः
प्रश्नः 3.
उन गुणों का उल्लेख कीजिए जो सुभद्रा कुमारी चौहान के चरित्र को महान बनाते हैं ?
उत्तरः
सुभद्रा कुमारी चौहान के व्यक्तित्व को महान बनाने वाले कुछ गुण हैं- निश्चित लक्ष्य पथ पर अडिग रहना, को हँसते-हँसते सह जाना आर्थिक कठिनाइयों में काम करते जाना आदि।
प्रश्नः 4.
सुभद्रा जी ने सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने का साहस किस तरह दिखाया?
उत्तरः
सुभद्रा कुमारी साहसी एवं विद्रोही थीं। उन्होंने यह साहस सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने में भी दिखाया। उन्होंने अपनी बेटी का अंतर जातीय विवाह करके एवं कन्यादान की प्रथा का विरोध करके सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ा।
प्रश्नः 5.
इलाहाबाद की कौन-सी घटना उनके प्रगतिशील व्यक्तित्व का परिचायक है?
उत्तरः
सुभद्रा कुमारी चौहान ने महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद इलाहाबाद में अस्थि विसर्जन के अवसर हरिजन महिलाओं के लिए संघर्ष किया, जो उनके प्रगतिशील व्यक्तित्व का परिचायक है।
15. हम विकास की चर्चा यहाँ छोड़ रहे हैं, क्योंकि विश्व के बहुसंख्यक लोगों का इस सारे गोरखधंधे से विश्वास ही उठा गया है। यह सारी बहस तो उन लोगों के बीच की है, जो व्यवस्था के साथ जुड़े हुए हैं। यह इसलिए चलती है, क्योंकि इसके साथ तंत्र की शक्ति है, तंत्र पर हावी पाँच प्रतिशत राजनीतिक और आर्थिक शक्ति वाले हथियाए लिए हुए लोग और उनके 15 प्रतिशत सहायकों के लिए ही रेडियो, टेलीविजन, समाचारपत्र और सारा प्रचारतंत्र बोलता है। सभी मंचों पर वे ही दिखाई देते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कुछ लोग सत्ता के आसनों पर विराजमान हैं और कुछ कतार बनाकर प्रतीक्षा में।
अब विकास ने इस धरती को इतना प्रदूषित और विपन्न बना दिया है कि प्रकृति द्वारा प्राणिमात्र को जिंदा रहने के लिए दी हुई प्राणवायु ही ज़हर बन गई है। जीवन-संचार करनेवाले तत्त्वों के बजाय विकिरण का खतरा पैदा हो गया है। पानी का भयंकर प्रदूषण ही नहीं हुआ है, बल्कि पानी की कमी भी हो गई है। औद्योगिक सभ्यता हमारे हाथ में तो आकर्षक पैकेटों में उपभोग की वस्तुएँ रख देती है, लेकिन हमारी आँखों के सामने दूर नदियों में विष छोड़ जाती है, वायु में जहर घोल जाती है। इसी प्रकार रात को दिन बनानेवाली बिजली, अपने उत्पादन केंद्र में पैदा करनेवाले विकिरण के खतरे, वायुमंडल में कार्बन घोलने या बाँध बनाकर उपजाऊ धरती व जंगलों को डुबाकर लाखों लोगों को उजाड़ने की घिनौनी करतूतों की कहानी पीछे छोड़ जाती है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-विकास की अनचाही देन।
प्रश्नः 2.
वाक्यांशों के लिए एक शब्द लिखिए।
आँखों के सामने, लोगों को उजाड़कर अन्यत्र बसाना।
उत्तरः
आँखों के सामने-प्रत्यक्ष
लोगों को उजाड़कर अन्यत्र बसाना–विस्थापन।
प्रश्नः 3.
विकास की बातें आज गोरखधंधा बनकर क्यों रह गई हैं?
उत्तरः
विकास की बातें आज गोरखधंधा इसलिए बन चुकी हैं, क्योंकि विकास का आर्थिक लाभ बहुत कम लोगों को मिल रहा है जबकि अधिकांश लोगों को विकास के हानिकारक पहलू प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है।
प्रश्नः 4.
अंधाधुंध विकास ही जीवन के लिए घातक बन गया है, कैसे?
उत्तरः
अंधाधुंध विकास के कारण धरती प्रदूषित और विपन्न बन गई है। जीवों के लिए प्रकृतिप्रदत्त प्राणवायु ज़हर बन गई है। पानी प्रदूषित हुआ है और उसकी उपलब्धता घट गई है।
प्रश्नः 5.
औद्योगिक सभ्यता की घिनौनी करतूतों की कहानी स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
औद्योगिक सभ्यता हमारे हाथों में आकर्षक पैकेट रखकर हमसे छल करती है। यह सभ्यता नदियों में विष छोड़ जाती है, वायु ज़हरीली बनाती है, विकिरण के खतरे उत्पन्न करती है और उर्वर धरती को बंजर बनाकर लोगों को अन्यत्र बसने पर विवश करती है।
16. ऐसा कोई दिन आ सकता है, जबकि मनुष्य के नाखूनों का बढ़ना बंद हो जाएगा। प्राणिशास्त्रियों का ऐसा अनुमान है कि मनुष्य का यह अनावश्यक अंग उसी प्रकार झड़ जाएगा, जिस प्रकार उसकी पूँछ झड़ गई है। उस दिन मनुष्य की पशुता भी लुप्त हो जाएगी। शायद उस दिन वह मारणास्त्रों का प्रयोग भी बंद कर देगा। तब तक इस बात से छोटे बच्चों को परिचित करा देना वांछनीय जान पड़ता है कि नाखून का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी है और उसे नहीं बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा है, अपना आदर्श है।
बृहत्तर जीवन में अस्त्र-शस्त्रों को बढ़ने देना मनुष्य की पशुता की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा। मनुष्य में जो घृणा है, जो अनायास बिना सिखाए आ जाती है, वह पशुत्व का द्योतक है और अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है। बच्चे यह जाने तो अच्छा हो कि अभ्यास और तप से प्राप्त वस्तुएँ मनुष्य की महिमा को सूचित करती हैं। मनुष्य की चरितार्थता प्रेम में है, मैत्री में है, त्याग में है, अपने को सबके मंगल के लिए नि:शेष भाव से दे देने में है। नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की उस अंध सहजात वृत्ति का परिणाम है, जो उसके जीवन में सफलता ले आना चाहती है, उसको काट देना उस स्व-निर्धारित, आत्म-बंधन का फल है, जो उसे चरितार्थता की ओर ले जाती हैं।
प्रश्नः 1.
दिए गए गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-‘नाखून क्यों बढ़ते हैं।’
प्रश्नः 2.
विलोम लिखिए-घृणा, लुप्त।
उत्तरः
घृणा x प्रेम
लुप्त x प्रकट।
प्रश्नः 3.
मनुष्य के नाखून उसकी पशुता के प्रमाण क्यों हैं? इनका झड़ जाना मनुष्यता के लिए किस तरह लाभदायी हैं ?
उत्तरः
मनुष्य के नाखून उसकी पशुता के प्रमाण इसलिए हैं, क्योंकि वह इन्हीं नाखूनों से प्राणियों को मारने का पशुवत् काम करता था। यह अनुपयोगी अंग न चाहते हुए बढ़ आता है। इसके झड़ जाने से मनुष्य की पशुवत आदतें नष्ट हो जाएँगी जो मनुष्यता के लिए लाभदायी हैं।
प्रश्नः 4.
लेखक बच्चों को क्या परिचित करवा देना चाहता है ? यह बृहत्तर जीवन के लिए किस तरह उपयोगी है?
उत्तरः
लेखक बच्चों को यह परिचित करवा देना चाहता है कि नाखूनों का बढ़ना मनुष्य के भीतर की पशुता की निशानी
है। इससे मनुष्य अपने वृहत्तर जीवन में मारणास्त्रों का प्रयोग कम कर सकता है।
प्रश्नः 5.
मनुष्य की चरितार्थता किसमें है? मनुष्य इसे चरितार्थ करने की दिशा में किस तरह कदम बढ़ा सकता है?
उत्तरः
मनुष्य की चरितार्थता प्रेम, मैत्री और त्याग में है, दूसरों की भलाई के लिए अपने को अर्पित कर देने में है। अपने
स्वार्थ हेतु दूसरों का अहित करना छोड़कर मनुष्य इसे चरितार्थ करने की दिशा में कदम बढ़ा सकता है।
17. ओलंपिक खेलों का अपना एक ध्वज है। यह सफेद रंग का है। इस ध्वज में पाँच छोटे-छोटे गोल घेरे होते हैं। ये पाँच घेरे विश्व के पाँच महाद्वीपों एशिया, अफ्रीका, यूरोप, आस्ट्रेलिया और अमेरिका का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन गोल घेरों का आपस में जुड़े होना इस भावना का प्रतीक है कि ये पाँचों महाद्वीप एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। ओलंपिक खेल आरंभ होने से पहले एक मशाल जलाकर लाई जाती है। इस मशाल को ओलंपिया से चलते हुए उस नगर में लाया जाता है जहाँ ओलंपिक खेल हो रहे हैं। इस ओलंपिक मशाल को जहाँ तक संभव हो दौड़ते हुए ही ले जाया जाता है। मेजबान देश का सर्वोच्च अधिकारी इन खेलों का उद्घाटन करता है।
इसके पश्चात् सभी देशों के खिलाड़ियों का मार्च पास्ट होता है। मार्च पास्ट में सबसे आगे एक खिलाड़ी ओलंपिक ध्वज लिए हुए चलता है। ओलंपिक ध्वज के पीछे खेलों में भाग लेने वाले देश के प्रमुख खिलाड़ी अपने-अपने देश का राष्ट्रीय ध्वज लिए हुए चलते हैं। यहाँ ओलंपिक मशाल जलाई जाती है तथा खेल संबंधी नियमों की शपथ ली जाती है। इसके पश्चात् खेल आरंभ होता है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का मूलभाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
गद्यांश का मूलभाव है-ओलंपिक खेलों के ध्वज से परिचित कराते हुए खेलों के उद्घाटन और इसकी महत्ता से परिचित करवाना।
प्रश्नः 2.
‘मेज़बान’, ‘आरंभ’-शब्दों का अर्थ लिखिए।
उत्तरः
मेजबान-आयोजन करने वाला देश/व्यक्ति आरंभ-शुरुआत
प्रश्नः 3.
ओलंपिक खेलों में इसके ध्वज की महत्ता स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
ओलंपिक खेलों में इसका ध्वज अपना विशेष महत्त्व रखता है। सफेद रंग के इस ध्वज पर पाँच छोटे-छोटे घेरे बने हैं, जो विश्व के पाँचों महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करते हुए उनका एक साथ जुड़ा होना दर्शाते हैं।
प्रश्नः 4.
ओलंपिक खेलों का उद्घाटन किस तरह किया जाता है?
उत्तरः
इस खेल के आरंभ में एक मशाल जलाई जाती है। इसे ओलंपिया से उस देश में लाया जाता है जहाँ ओलंपिक खेलों का आयोजन हो रहा है। इसके बाद मेजबान देश का सर्वोच्च अधिकारी इन खेलों का उद्घाटन करता है।
प्रश्नः 5.
विश्व के लिए ओलंपिक खेलों का क्या महत्त्व है?
उत्तरः
ओलंपिक खेलों में विश्व के अनेक देशों के विभिन्न खेलों के खिलाड़ी जुटते हैं। वे खेल संबंधी नियमों की शपथ लेते हैं। इससे उनके बीच मेल-जोल बढ़ता है। यह मेल-जोल केवल खिलाड़ियों तक सीमित न होकर देशों के बीच हो जाता है।
18. हमारा यह कर्तव्य है कि हम विकलांगों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें। उनके प्रति मानवीय दृष्टि का परिचय दें। उनमें निहित हीन भावना को दूर कर उनमें आत्म-विश्वास जगाएँ। उनके पुनर्वास के लिए प्रयत्नशील रहें। उन्हें यह अनुभव कराया जाए कि वे भी समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं। उन्हें भी एक सामान्य व्यक्ति के समान अधिकार प्राप्त हैं। वे भी मतदान करके राष्ट्र के निर्माण में सहायक बन सकते हैं। वे भी अपनी उपलब्धियों का पुरस्कार पाने के अधिकारी हैं।
विकलांगों के पुनर्वास के लिए यह ज़रूरी है कि उन्हें दूसरों के समान रोज़गार, वेतन आदि दिए जाएँ। ऐसा करना कठिन अवश्य है, क्योंकि पढ़े-लिखे सामान्य युवकों के लिए तो रोज़गार उपलब्ध नहीं, फिर भी इनके लिए कुछ स्थान निश्चित किए जा सकते हैं। इनके लिए सरकार रोज़गार के विशेष साधन उपलब्ध कराए। वे जो-जो कर सकते हैं, उन्हें उन कामों में लगाया जाए। बहरा व्यक्ति कई काम कर सकता है। लंगड़ा व्यक्ति हाथों की सहायता से काम कर सकता है। अंधा व्यक्ति सूत कात सकता है। कुछ ऐसे भी काम हैं, जिन्हें विकलांग एक-दूसरे की सहायता से भी कर सकते हैं।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-विकलांगों के प्रति हमारा कर्तव्य।
प्रश्नः 2.
विकलांग राष्ट्र निर्माण में किस तरह सहायता कर सकते हैं?
उत्तरः
विकलांग व्यक्ति मतदान करके राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दे सकते हैं।
प्रश्नः 3.
आज विकलांगों के प्रति हमारा कर्तव्य किस तरह बदल गया है और क्यों?
उत्तरः
आज यह आवश्यक हो गया है कि हम विकलांगों के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें, उनमें निहित हीन भावना दूर कर उनमें आत्मविश्वास जगाएँ और उनके साथ मानवीय व्यवहार करें, क्योंकि वे भी हमारे समाज के अंग हैं।
प्रश्नः 4.
विकलांगों का पुनर्वास करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? यह कार्य कठिन क्यों है?
उत्तरः
विकलांगों के पुनर्वास के लिए उन्हें भी दूसरों के समान रोज़गार, वेतन आदि दिया जाना चाहिए। यह कार्य इसलिए कठिन है क्योंकि हमारे देश में पढ़े-लिखे सामान्य लोगों के लिए ही रोज़गार के अवसरों की कमी है।
प्रश्नः 5.
विकलांगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए?
उत्तरः
विकलांगों को आत्मनिर्भर बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें रोज़गार के विशेष अवसर उपलब्ध करवाते हुए उनसे वे ही काम करवाए जाने चाहिए जिनके योग्य वे हैं, जैसे-पैर से अपंग व्यक्ति हाथ से कई काम कर सकता है।
19. आलस्य जीवन को अभिशापमय बना देता है। आलसी व्यक्ति परावलंबी होता है। वह कभी पराधीनता से मुक्त नहीं हो सकता। हमारा देश सदियों तक पराधीन रहा। इसका आधारभूत कारण भारतीय जीवन में व्याप्त आलस्य एवं हीन भावना थी। जैसे हमने परिश्रम के महत्त्व को समझा, वैसे ही हमारी हीनता दूर होती गई और हममें आत्मविश्वास बढ़ता गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि हमने एक दिन पराधीनता की केंचुली उतारकर फेंक दी। परिश्रम ही छोटे-से बड़े बनने का साधन है।
यदि छात्र परिश्रम न करे तो परीक्षा में कैसे सफल होंगे। मजदूर भी मेहनत का पसीना बहाकर सड़कों, भवनों, बाँधों, मशीनों तथा संसार के लिए उपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। मूर्तिकार, चित्रकार, कवि, लेखक सब परिश्रम द्वारा ही अपनी रचनाओं से संसार को लाभ पहुँचाते हैं। कालिदास, तुलसीदास, शेक्सपियर, टैगोर आदि परिश्रम के बल पर ही अपनी रचनाओं के रूप में अजर-अमर हैं।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-परिश्रम का महत्त्व।
प्रश्नः 2.
पराधीनता, ‘परावलंबी’ में प्रयुक्त उपसर्ग मूलशब्द एवं प्रत्यय लिखिए।
उत्तरः
प्रश्नः 3.
आलस्य जीवन को किस तरह अभिशापमय बना देता है ?
उत्तरः
आलस्य के कारण व्यक्ति अपना काम भी नहीं करता है। वह परावलंबी बन जाता है। ऐसा व्यक्ति बाद में पराधीन हो जाता है जिससे उसका व्यक्तित्व अभिशापमय बन जाता है।
प्रश्नः 4.
जीवन में परिश्रम का क्या महत्त्व है? उदाहरण सहित समझाइए।
उत्तरः
परिश्रम का महत्व समझने से व्यक्ति के मन में छिपी हीनता दूर होती है। इससे आत्मविश्वास बढ़ता है। इसका उदाहरण है-विद्यार्थी जीवन। जो छात्र परिश्रम करता है, वह अवश्य सफल होता है।
प्रश्नः 5.
धरती और जीवन को सुंदर बनाने में परिश्रम का योगदान स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
परिश्रम करके मज़दूर सड़क, भवन, बाँध आदि बनाकर धरती को सुंदर बनाते हैं। इसी प्रकार मूर्तिकार, कवि, लेखक, चित्रकार आदि अपने अथक परिश्रम द्वारा ऐसी कृतियों की रचना करते हैं, जिनसे मानव जीवन सुंदर बनता है।
20. इलेक्ट्रॉनिक और सामाजिक संचार तंत्रों ने फैलिन के प्रभाव को कम करने में एक सकारात्मक भूमिका निभाई है। भारतीय मौसम विभाग की सटीक और समय पर, प्रभावी पूर्व सूचना का संचार तंत्रों द्वारा प्रसारण ने चक्रवात के प्रकोप से लड़ने की और हानि को कम करने में योगदान दिया है। राज्य द्वारा संचालित आल इंडिया रेडियो, जिसकी पहुँच ओडिशा के 80 प्रतिशत विशेषतः ग्रामीण क्षेत्रों में है ग्रामवासियों को चक्रवात के आने से पूर्व तैयारी का अवसर प्रदान किया।
उन्होंने विशेष बुलेटिन प्रसारित कर लोगों को सलाह दी कि चक्रवाती परिस्थितियों से किस प्रकार निबटें। सभी समाचार चैनलों ने फैलिन की वास्तविक स्थिति का प्रसारण किया। जिससे लोगों को और बचाव राहत दलों को आपदा की तैयारी में सहायता मिली। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी फैलिन आपदा के दौरान मीडिया के योगदान की प्रशंसा की और इसके प्रभाव को कम करने तथा लोगों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की प्रशंसा की।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है- आपदा में मीडिया का योगदान।
प्रश्नः 2.
फेलिन क्या है?
उत्तरः
फेलिन एक चक्रवाती तूफान है, जिससे जन-धन की असीम हानि हुई।
प्रश्नः 3.
संचार तंत्रों ने फेलिन के प्रभाव को काम करने में किस तरह अपनी भूमिका निभाई ?
उत्तरः
संचार तंत्रों ने मौसम विभाग की सटीक जानकारी लोगों तक समय पर पहुँचाई। इन तंत्रों की प्रभावशाली पूर्व सूचना ने चक्रवात के प्रकोप से लड़ने की और हानि से बचाने के लिए लोगों को तैयारी करने का अवसर दिया।
प्रश्नः 4.
राज्य द्वारा संचालित ‘आल इंडिया रेडियो’ के यागदान का उल्लेख कीजिए !
उत्तरः
आल इंडिया रेडियो की पहँच ओडीसा के 80 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में है। इससे लोगों को तैयारी करने का अवसर ही नहीं मिला, बल्कि चक्रवाती परिस्थितियों से लोगों को निबटने की सलाह भी दी।
प्रश्नः 5.
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किसकी प्रशंसा की गई और क्यों?
उत्तरः
संयुक्त राष्ट्र संघ ने आपदा की स्थिति में मीडिया के योगदान की प्रशंसा की, क्योंकि मीडिया के कारण ही फेलिन नामक चक्रवाती तूफ़ान के द्वारा होने वाली हानियों को कम करने संबंधी सूचनाओं का आदान-प्रदान किया गया।
21. परिश्रम उन्नति का द्वार है। मनुष्य परिश्रम के सहारे ही जंगली अवस्था से वर्तमान विकसित अवस्था तक पहुँचा है। उसी के सहारे उसने अन्न उपजाया, वस्त्र बनाए, घर, मकान, भवन, बाँध, पुल, सड़कें बनाईं। तकनीक का विकास किया, जिसके सहारे आज यह जगमगाती सभ्यता चल रही है। परिश्रम केवल शरीर की क्रियाओं का ही नाम नहीं है। मन तथा बुद्धि से किया गया परिश्रम भी परिश्रम कहलाता है। हर श्रम में बुद्धि तथा विवेक का पूरा योग रहता है। परिश्रम का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे लक्ष्य प्राप्त करने में सहायता मिलती है। परिश्रम करने वाला मनुष्य सदा सुखी रहता है।
उसे मन-हीमन प्रसन्नता रहती है कि उसने जो भी भोगा, उसके बदले उसने कुछ कर्म भी किया। परिश्रमी व्यक्ति का जीवन स्वाभिमान से पूर्ण होता है, वह अपने भाग्य का निर्माता होता है। उसमें आत्म-विश्वास होता है। परिश्रमी व्यक्ति किसी भी संकट को बहादुरी से झेलता है तथा उससे संघर्ष करता है। परिश्रम कामधेन है जिससे मनुष्य की सब इच्छाएँ पूरी हो सकती हैं। मनुष्य को मरते दम तक परिश्रम का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। जो परिश्रम से इनकार करता है, वह जीवन में पिछड़ जाता है।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-परिश्रम की महत्ता।
प्रश्नः 2.
विलोम लिखिए-परिश्रम, उन्नति।
उत्तरः
परिश्रम – आलस्य, उन्नति – अवनति।
प्रश्नः 3.
आज की चमकती सभ्यता में परिश्रम का योगदान स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
मनुष्य अपने परिश्रम से ही आदिमानव की जंगली अवस्था त्यागकर सभ्य बना है। उसने परिश्रम से अन्न उपजाया, वस्त्र बनाए, घर मकान, भवन बाँध और पुल बनाए जिससे स यता इस चमकती अवस्था तक पहुंची है।
प्रश्नः 4.
परिश्रम करने से क्या लाभ है?
उत्तरः
परिश्रम करने से व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्त होता है। ऐसा व्यक्ति सुखी और प्रसन्नचित्त रहता है, क्योंकि उसने जो कुछ पाया है, उसके लिए परिश्रम किया है।
प्रश्नः 5.
परिश्रम को कामधेनु क्यों कहा गया है? परिश्रम न करने का क्या परिणाम होता है?
उत्तरः
परिश्रम को कामधेनु इसलिए कहा गया है, क्योंकि परिश्रम से व्यक्ति हर प्रकार की मनोवांछित सफलता प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत परिश्रम न करने वाला व्यक्ति सफलता से कोसों दूर रहता है और पिछड़ता जाता है।
22. उन दिनों अब्राहम लिंकन की गिनती अमेरिका के प्रतिष्ठित अधिवक्ताओं में होती थी। अदालत में उनकी प्रैक्टिस बहुत अच्छी चल रही थी। उनके चैंबर में क्लाइंट्स का तांता लगा रहता था। फिर भी वह सबको संतुष्ट करके भेजते थे। एक बार दो भाइयों में जमीन-जायदाद के बँटवारे को लेकर झगड़ा हो गया। पड़ोस के लोगों ने खूब समझाया, किंतु वे एक-दूसरे की बात मानने को तैयार नहीं हुए। दोनों ने अपने-अपने पक्ष को न्यायसंगत ठहराते हुए कोर्ट में जाने का निर्णय लिया। उनमें से एक, एडवोकेट अब्राहम लिंकन के पास गया और उनसे अपने पक्ष में मुकदमा लड़ने का आग्रह किया। सारा वृतांत सुनने के बाद लिंकन ने कहा, ‘कोर्ट-कचहरी में कुछ नहीं रखा। दोनों भाइयों की भलाई इसी में है कि आपस में सुलह-समझौता कर लो।’ किंतु वह अपनी बात पर अड़ा रहा।
लिंकन ने उससे कहा, ‘कुछ देर शांत होकर सोचो।’ लिंकन कुछ देर के लिए अपने चैंबर से बाहर आ गए। लिंकन ने देखा कि दूसरा भाई बाहर घूम रहा है। लिंकन ने उससे भी समझौता कर, समस्या निपटाने की सलाह दी। लेकिन उसे भी यह विमर्श अच्छा नहीं लगा। फिर भी लिंकन ने धैर्य नहीं छोड़ा। उन्होंने दोनों भाइयों को समझाकर अपने चैंबर में बैठा दिया और बाहर निकल कर दरवाज़ा बंद कर दिया। दो घंटे बाद दोनों भाई दरवाज़ा खटखटाने लगे। अब्राहम लिंकन ने द्वार खोला तो दोनों बाँहों में बाँहें डालकर मुसकरा रहे थे। दोनों एक स्वर में बोले, ‘शुक्रिया साहब, हमने समझौता कर लिया है। अब हम मुकदमा नहीं लड़ेंगे।’ यह सुनकर अब्राहम लिंकन को बहुत प्रसन्नता हुई। लिंकन फ़ीस के लालची वकीलों में से नहीं थे। विवेकपूर्ण सलाह देकर ही मुकदमों का निपटारा करवाने में विश्वास रखते थे।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का उचित शीर्षक है-अब्राहम लिंकन की मनुष्यता।
प्रश्नः 2.
‘संतुष्ट’, ‘भलाई’ प्रयुक्त उपसर्ग मूलशब्द और प्रत्यय ज्ञात कीजिए।
उत्तरः
प्रश्नः 3.
लिंकन ने उस व्यक्ति से क्यों कहा कि आपस में सुलह कर लो?
उत्तरः
अब्राहम लिंकन प्रसिद्ध वकील अवश्य थे, पर वे अपनी फ़ीस से दूसरों की भलाई का ध्यान रखते थे। वे जानते थे कि मुकदमे द्वारा निर्णय होने पर दोनों भाई एक दूसरे के दुश्मन बन जाएँगे इसलिए वे, दोनों में सुलह कराना चाहते थे।
प्रश्नः 4.
लिंकन ने किस बात के लिए धैर्य नहीं छोड़ा?
उत्तरः
दोनों में से कोई भी समझौता नहीं करना चाहता था, पर लिंकन चाहते थे कि दोनों ज़मीन के लिए मुदकमा न लड़कर आपस में समझौता कर लें। वे धैर्य छोड़े बिना इसके लिए प्रयासरत थे।
प्रश्नः 5.
लिंकन फ़ीस के लालची वकीलों में नहीं थे। स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
लिंकन चाहते तो एक भाई का मुकदमा खुद लड़ते और उससे मोटी फ़ीस लेते। वे चाहते तो दूसरे भाई को भी मुकदमे के लिए उकसाते परंतु उन्होंने अपनी फ़ीस की चिंता न करके दोनों में समझौता करा दिया। इस तरह लिंकन फ़ीस के लालची वकीलों में न थे।
23. ओजोन की परत को अच्छा करने में प्रत्येक व्यक्ति कई तरीकों से योगदान कर सकता है। हम लोग ओजोन हितैषी उपभोक्ता बन सकते हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम जो भी उत्पाद खरीदते हैं; वे सी.एफ.सी. और ओ.डी.एस. से मुक्त हैं। हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि फ्रिज, वातानुकूलक वायु विलयक डिब्बे और अग्निशामक यंत्रों पर स्पष्ट रूप में लिखा होना चाहिए कि वे ओजोन हितैषी हैं। हमें ओ.डी.एस वाले पुराने फ्रिज और अग्निशामकों को हटा देना चाहिए। किसानों को ओजोन हितैषी पीड़कनाशियों का उपयोग करना चाहिए। फ्रिज ठीक करने वाले मिस्त्रियों को सभी प्रकार के रिसाव जल्दी ठीक करने चाहिए और यह देखना चाहिए कि मरम्मत किए गए प्रशीतकों में टूट-फूट नहीं हैं और उनमें रिसाव भी नहीं है।
प्रशीतकों की पुनर्णाप्ति और पुनश्चक्रण के कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए। दफ्तरों में भी ओ.डी.एस. का उपयोग करने वाले उपकरणों के स्थान पर उपयुक्त ओजोन हितैषी विकल्पों को स्थान देना चाहिए। विद्यार्थियों को भी पोस्टरों दवारा, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का आयोजन करके और ब्लॉग लेखन द्वारा जागरूकता पैदा करने वाले कार्यक्रम शुरू करने चाहिए। यही नहीं उन्हें अपने परिवार, मित्रों और पड़ोसियों को भी ओजोन हितौषी पदार्थों के विषय में बताना चाहिए। ऐसे कई गैर-सरकारी संगठन हैं जो जागरूकता अभियान में सहयोग दे सकते हैं। ओजोन बचाओ, पृथ्वी पर जीवन बचाओ।
प्रश्नः 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का शीर्षक है-ओजोन बचाओ, जीवन बचाओ।
प्रश्नः 2.
‘वातानुकूलक’ ‘पुनाप्ति’ में संधि विच्छेद कीजिए।
उत्तरः
वातानुकूलक = वात + अनुकूलक
पुनर्घाप्ति = पुनः + प्राप्ति
प्रश्नः 3.
हम ओजोन हितैषी उपभोक्ता कैसे बन सकते हैं?
उत्तरः
ओजोन हितैषी उपभोक्ता बनने के लिए हमें सी.एफ.सी. और ओ.डी. एस. मुक्त उपकरण खरीदने चाहिए। इसके अलावा ऐसे उपकरण खरीदना चाहिए, जिन पर लिखा हो कि वे ओजोन हितैषी हैं। इसके अलावा हमें पुराने उपकरणों को बदल देना चाहिए।
प्रश्नः 4.
ओजोन परत बचाने में किसान और मिस्त्री किस प्रकार अपना योगदान दे सकते हैं?
उत्तरः
ओजोन परत बचाने के लिए किसानों को उन पीड़क नाशकों का प्रयोग करना चाहिए, जिनका ओजोन पर कोई दुष्प्रभाव न हो। इसी प्रकार मिस्त्रियों को यह देखना चाहिए कि प्रशीतकों में कोई टूट-फूट और रिसाव न हो।
प्रश्नः 5.
विद्यार्थियों को ओजोन की परत बचाए रखने के लिए क्या-क्या करना चाहिए?
उत्तरः
विद्यार्थियों को चाहिए कि वे ओजोन बचाने संबंधी पोस्टर बनाए, वाद-विवाद आयोजित करें और ब्लॉग लिखकर लोगों में जागरुकता करनी चाहिए। उन्हें अपने इष्ट, मित्रों, परिवार और पड़ोसियों को भी ओजोन हितैषी पदार्थों के
बारे में बताना चाहिए।
24. भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। ‘त्यक्तेन भुजीथा,’ जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का सही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन से जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पाता। बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्जा करती है। अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था, जिसका एकमात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था, और वह भी उस समय जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी। महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई, क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी, क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था। श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि जिंदगी की सबसे बड़ी सिफत हिम्मत है। आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।
प्रश्नः 1.
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।
उत्तरः
गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक है-‘हिम्मत और जिंदगी’।
प्रश्नः 2.
शब्दार्थ लिखिए-परास्त करना, जोखिम।
उत्तरः
परास्त करना-हरा देना।
जोखिम-खतरा।
प्रश्नः 3.
जिंदगी का वास्तविक आनंद किस प्रकार लिया जा सकता है?
उत्तरः
जिंदगी का वास्तविक आनंद संयमपूर्वक भोग करके लिया जा सकता है। इसका कारण यह है कि संयम से भोग करने पर जीवन का जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल सकता है।
प्रश्नः 4.
गद्यांश में अकबर का उल्लेख किस संदर्भ में किया गया है? उसने कौन-सा साहसी काम किया था?
उत्तरः
गद्यांश में अकबर का उल्लेख इसलिए किया गया है, क्योंकि अकबर ने विपरीत परिस्थितियों में अपने पिता के शत्रु को हराया। उस समय उसकी उम्र मात्र तेरह साल थी और वह धनहीन भी था।
प्रश्नः 5.
गद्यांश में पांडवों की विजय का क्या कारण बताया गया है?
उत्तरः
गद्यांश में पांडवों की जीत का कारण यह बताया गया है कि उन्होंने लाक्षागृह की बाधाओं पर विजय पाई थी और वनवास की राह में आए सभी खतरे एवं संकटों का सामना किया था।
25. श्रावस्ती से महात्मा बुद्ध सीधे उस जंगल की ओर गए जहाँ अंगुलिमाल रहता था। दोपहर का समय था। भगवान बुद्ध चलते-चलते थक गए थे। लेकिन वे चलते जा रहे थे, वे रुके नहीं। अचानक उन्हें एक कठोर और भारी आवाज़ सुनाई पड़ी -‘ठहर जा’। वे नहीं ठहरे। वे चलते ही रहे। वही भयानक आवाज़ फिर सुनाई पड़ी “ठहर जा”। वे ठहर गए। उन्होंने आगे-पीछे, चारों ओर देखा। उन्हें काफ़ी दूर सामने से एक भयानक शक्ल आती हुई दिखाई पड़ी।
ऊँचा कद, काला शरीर, बिखरे हुए बाल, लाल-लाल आँखें, बड़ी-बड़ी मूंछे, चौड़ा सीना, हाथ में कटार अंगुलिमाल है। महात्मा बुद्ध ने अंगुलिमाल से मुसकराते हुए प्रेमपूर्वक पूछा-“मैं तो ठहर गया, तू कब ठहरेगा?” अंगुलिमाल चकित हो गया। उसके सामने किसी की बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। लोग उसे देखकर थरथर काँपते थे। भगवान बुद्ध ने फिर प्यार से पूछा-” कब ठहरेगा तू?” अंगुलिमाल पर भगवान बुद्ध के प्रेम भरे शब्दों का असर होने लगा। अंगुलिमाल भगवान बुद्ध के आगे नतमस्तक हो गया। वह कहने लगा – “महात्मन! आपने मुझे राह दिखाई है। मेरी आँखें खोल दी हैं।” उसने उँगलियों की माला तोड़कर फेंक दी। कटार दूर फेंक दी और भगवान बुद्ध का शिष्य बन गया।
प्रश्नः 1.
दोपहर, नतमस्तक-विग्रह करके समास का नाम बताइए।
उत्तरः
प्रश्नः 2.
बुद्ध जंगल की ओर क्यों जा रहे थे?
उत्तरः
महात्मा बुद्ध डाकू अंगुलिमाल से मिलने जंगल की ओर जा रहे थे।
प्रश्नः 3.
आवाज़ सुनकर भी भगवान बुद्ध क्यों नहीं रुके? उन्होंने अंगुलिमाल को किस रूप में देखा?
उत्तरः
महात्मा बुद्ध अंगुलिमाल से निडर थे, इसलिए वे आवाज़ सुनकर भी नहीं रुके। उन्होंने अंगुलिमाल के काले शरीर, बिखरे हुए बाल, लाल-लाल आँखें, बड़ी-बड़ी मूंछों और हाथ में कटार लिए भयानक रूप में देखा।
प्रश्नः 4.
बुद्ध के वचन सुनकर अंगुलिमाल क्यों चकित रह गया?
उत्तरः
बुद्ध के वचन सुनकर अंगुलिमाल इसलिए चकित रह गया, क्योंकि जिस अंगुलिमाल की आवाज़ सुनकर लोग भय से थर-थर काँपने लगते थे, उसी से गौतम बुद्ध निडर होकर प्यार से बातें कर रहे हैं।
प्रश्नः 5.
बुद्ध के वचनों ने किस तरह अंगुलिमाल के जीवन की दिशा बदल दी?
उत्तरः
बुद्ध के वचनों का अंगुलिमाल के हृदय पर गहरा असर हुआ। वह बुद्ध के आगे नतमस्तक हो गया। उसने अंगुलियों की माला और कटार फेंक दी और बुद्ध का शिष्य बन गया।
26. एक पुराना इतिहास मुझे भी स्मरण हो आया था। वह इतिहास यह है। बात सन् 35-36 की है। उन दिनों में शांति निकेतन में था। एक दिन प्रातः भ्रमण के लिए निकला था। मैं साधारणतः प्रातः भ्रमण के लिए तभी निकलता हूँ, जब किसी ऐसे उत्साही घुमक्कड़ से, जो श्रद्धेय कोटि के होते हैं, प्रेरणा मिलती है। उन दिनों श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से प्रातः भ्रमण के लिए निकलता था। सही बात तो यह है कि निकलते वह थे, मैं पीछे हो लेता था। तो उस दिन भी मैं उनके साथ ही निकला।
भाग्य उस दिन प्रसन्न था। देखा, गुरुदेव धीरे-धीरे अपने बगीचे में टहल रहे थे। कुछ गंभीर मुद्रा में थे। आचार्य सेन ने कहा, “चलो प्रणाम कर लें।” वह आगे चले, मैं पीछे-पीछे। धीरे-धीरे दबे पाँव हम लोग उनके पास पहुँच गए। चरण छूकर प्रणाम निवेदन किया। उनका ध्यान भंग हुआ। देखकर प्रसन्न हुए। उन्होंने उस दिन मुझे संबोधित करते हुए कहा – “तुमने कभी सोचा है कि भीष्म को अवतार क्यों नहीं माना गया और श्रीकृष्ण को ही क्यों अवतार रूप में सम्मान दिया गया?”
प्रश्नः 1.
‘स्मरण’, ‘भाग्य’ शब्दों से विशेषण बनाइए।
उत्तरः
प्रश्नः 2.
गद्यांश का मूल कथ्य क्या है?
उत्तरः
गद्यांश का मूलकथ्य है-लेखक और क्षितिमोहन सेन का प्रातः भ्रमण पर जाना और भाग्य से गुरुदेव से मुलाकात हो जाना।
प्रश्नः 3.
प्रातः भ्रमण के विषय में लेखक के विचार स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
प्रातः भ्रमण के मामले में लेखक थोड़ा आलसी प्रवृत्ति का था। वह भ्रमण के लिए तभी निकलता था, जब उसे कोई उत्साही घुमक्कड़ प्रेरित करता था।
प्रश्नः 4.
लेखक किसकी प्रेरणा से घूमने निकला? लेखक ने ऐसा क्यों कहा कि भाग्य उस दिन प्रसन्न था?
उत्तरः
लेखक श्रद्धेय आचार्य क्षितिमोहन सेन की प्रेरणा से घूमने निकला। संयोग से उसकी मुलाकात गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर से हो गई, इसलिए उसने कहा कि भाग्य उसके साथ है।
प्रश्नः 5.
लेखक और गुरुदेव की मुलाकात का संक्षिप्त शब्द-चित्र प्रस्तुत कीजिए।
उत्तरः
गुरुदेव बगीचे में गंभीर मुद्रा में धीरे-धीरे टहल रहे थे। लेखक क्षितिमोहन सेन के साथ गुरुदेव के पास गया, चरण छूकर प्रणाम किया। गुरुदेव का ध्यान भंग हुआ, देखा और प्रसन्न हो गए।